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पंचकोश Panchkosha - Five sheaths of existence

Kosh means layers of existence. The existence of human beings have been described having five layers in Brahmananda and Anand Valli of Tattiriyopanishad. This is the primary Upanishad for Krishna Yajurveda. I learnt how to recite it, and have found it an excellent way of understand and classify existence and behavior of human beings. I am learning the meanings, so thought would share with you. It is dificult to get an exact English translation, these are closest to the meaning that I have learnt so far. The five koshas are –  अन्नमय कोश Annamaya Kosh (Physical Layer)  प्राणमय कोश Pranamaya Kosh (Vitality Layer)  मनोमय कोश Manomaya Kosh (Consciousness Layer)  विज्ञानमय कोश Vigyanamaya Kosh (Intellect Layer)  आनंदमय कोश Anandmaya Kosh (Blissful Layer)  अन्नमय कोश Annamaya Kosh ( Physical Layer)   Literal meaning of Anna is food. However, as the lowest level of existence, Annamaya Kosh refers to the world of physical existence. Everything that we experience through our Indriyas are par

साधनपाद । सूत्र 51 - 55 ।

बाह्याभ्यन्तरविषयाक्षेपी चतुर्थः ॥ ५१ ॥  वाह्य एवं अंदर के विषयों का त्याग करने वाला चतुर्थ प्रकार है ।  श्वास में वाह्य एवं अभ्यंतर का भेद होता है । पिछले दो सूत्रों में श्वास में वाह्य , अभ्यंतर एवं स्तंभ की महत्ता बतायी गयी है । इन सूत्रों में श्वास के इन विभिन्न प्रक्रियाओं पर जोर देकर प्राणायाम के विभिन्न आयामों का वर्णन है । अब यदि यह श्वास प्रक्रिया इतनी सहज हो कि वाह्याभ्यंतर में किसी विषय का आभास न हो , वह चतुर्थ प्रकार का प्राणायाम है । इस प्रक्रिया में श्वास लेने एवं छोडने पर मन में विषयों का आभास नहीं होता ।  ततः क्षीयते प्रकाशावरणम् ॥ ५२ ॥  तब प्रकाश के उपर का आवरण क्षीण हो जाता है ।  तत्पश्चात , प्रकाश अर्थात अंतर्मन का सही रुप , के उपर से चादर हट जाती है । जैसे बादल सूर्य को आच्छादित कर , प्रकाश को रोक देते हैं , वैसे ही वृत्तियाँ पुरूष के सही रुप को ढक कर रखती है । पतंज़लि मुनि के अनुसार सहज प्राणायाम को प्राप्त कर लेने पर , वृत्तियाँ क्षीण होने लगती हैं एवं पुरूष रुपी प्रकाश का आभास होने लगता है । धारणासु च योग्यता मनसः ॥ ५३ ॥  और धारणा में मन की योग्यता हो जाती है ।  अ

साधनपाद । सूत्र 46 - 50 ।

स्थिरसुखम् आसनम् ॥ ४६ ॥  सुखपूर्वक स्थिर होना आसन है |  आसन में देह का स्थिर होना जरुरी होता है । इस स्थिति में देह को सुख होना चाहिये । यहाँ पर किसी विशेष आसन की बात नहीं की गयी है । परंतु अगर लंबे समय तक सुखपूर्वक स्थिर होना हो , तो यह आवश्यक है कि रीढ की हड्डी सीधी हो । ऐसे आसन भी हैं , जो देह को सुदृढ बनाते है , एवं हठयोग में उनका विशेष वर्णन है ।  प्रयत्नशैथिल्यानन्तसमापत्तिभ्याम् ॥ ४७ ॥  इसमें प्रयत्न में शिथिलता से अनंत की समापत्ति हो जाती है ।  आसन में बैठने पर प्रयत्न नहीं होना चाहिये । ऐसे आसन में बैठने पर फिर प्रयत्न करने की आवश्यकता नहीं होती है । इससे शरीर शिथिल होने लगता है, तत्पश्चात अनंत का आभास होने लगता है ।  ततो द्वन्द्वानभिघातः ॥ ४८ ॥  तब द्वन्द्वों से आघात नहीं होता ।  आसन में स्थिर हो जाने पर, द्वन्द्व भाव विचलित नहीं करते । चाहे सुखपूर्वक भाव उठे अथवा दुख पूर्वक भाव उठे , आसन में स्थित पुरुष का चित्त स्थ्रिर रहता है । द्वन्द्व परिस्थितियों में भी वो विचलित नहीं होते ।  तस्मिन् सति श्वासप्रश्वासयोर्गतिविच्छेदः प्राणायामः ॥ ४९ ॥  इसमें स्थिर हो जाने के बाद श्वास एव

साधनपाद । सूत्र 41 - 45 ।

सत्त्वशुद्धिसौमनस्यैकाग्र्येन्द्रियजयात्मदर्शनयोग्यत्वानि च ॥ ४१ ॥  इसके अलावा , सत्त्व , शुद्धि , सौमनस्य , एकाग्रता , इन्द्रियों पर विजय एवं आत्मदर्शन की योग्यता भी आती है ।  शौच से और भी कई योग्यताओं की प्राप्ति होती है । इससे सत्व अर्थात सत्यभाव उत्पन्न होने लगता है । शुद्धि से तात्पर्य शुद्ध अर्थात साफ अस्तित्व से है । सौमनस्य में विपरीत परिस्थितियों में भी शांत भाव बना रहता है । एकाग्र होने से जिस कर्म का सम्पादन हो रहा हो , सिर्फ उसी पर मन लगा रहता है । अपने अंगों से वैराग्य उत्पन्न हो जाने पर इन्द्रियाँ देह को प्रभावित करने में असफल हो जाती हैं, और अंततः इन्द्रियों पर पूर्ण विजय प्राप्त हो जाता है । इससे चित्त शांत होने लगता है , और आत्मदर्शन की योग्यता आती है ।  संतोषाद् अनुत्तमः सुखलाभः ॥ ४२ ॥  संतोष से अत्युत्तम सुख का लाभ होता है ।  संतोष से जितना हो , उसी में सुखपूर्वक रहने की इच्छा होती है । और विषयों पर मन नहीं भागता , और इससे अनुत्तम सुख का लाभ होता है ।  कायेन्द्रियसिद्धिरशुद्धिक्षयात् तपसः ॥ ४३ ॥  तप से अशुद्धि कम होता है , जिससे देह और इन्द्रियों की सिद्धि हो जाती ह

साधनपाद । सूत्र 36 - 40 ।

सत्यप्रतिष्ठायां क्रियाफलाश्रयत्वम् ॥ ३६ ॥  सत्य में प्रतिष्ठित होने पर क्रिया के फल का आश्रय हो जाता है ।  जो सत्य में प्रतिष्ठित है , वह कर्म और उससे होने वाले फल को सही देखना शुरु कर देते हैं । इससे कर्म के सही फल मिलना शुरू हो जाता है ।  अस्तेयप्रतिष्ठायां सर्वरत्नोपस्थानम् ॥ ३७ ॥  अस्तेय में प्रतिष्ठित होने पर सभी रत्न स्वयं उपस्थित हो जाते हैं ।  अस्तेय का अर्थ है – चोरी न करना । जो सम्पत्ति अपनी अर्जित न हो , उसे अपना कर लेना अस्तेय है । अस्तेय में प्रतिष्ठित होने पर दूसरों का विश्वास बढने लगता है । इससे उस व्यक्ति के पास सारी आवश्यकता की चीजें स्वयं उपलब्ध होने लगते हैं ।  ब्रह्मचर्यप्रतिष्ठायां वीर्यलाभः ॥ ३८ ॥  ब्रह्मचर्य में प्रतिष्ठित होने पर वीर्य का लाभ होता है ।  ब्रह्मचर्य में प्रतिष्ठित होने पर शक्ति बढ्ने लगती है । ब्रह्मचर्य में लैंगिक संबंधों में संयंम की अत्यावश्यकता है । वीर्य से शक्ति बढती है , और संयंम से मानसिक एवं शारीरिक शक्ति का विकास होता है ।  अपरिग्रहस्थैर्ये जन्मकथंतासंबोधः ॥ ३९ ॥  अपरिग्रह की स्थिति हो जाने पर जन्म के कारण का संबोध हो जाता है ।  अपरिग्र

साधनपाद । सूत्र 31 - 35 ।

जातिदेशकालसमयानवच्छिन्नाः सार्वभौमा महाव्रतम् ॥ ३१ ॥  जाति , देश , काल एवं समय से परे ये सार्वभौम महाव्रत है ।  ये महाव्रत जन्म , स्थान , समय से परे हैं । ये हमेशा एवं हर जगह लागू होते हैं । अष्टांग योग सार्वभौम महाव्रत हैं ।  शौचसंतोषतपःस्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि नियमाः ॥ ३२ ॥  शौच , संतोष , तप , स्वाध्याय एवं ईश्वरप्रणिधान – ये नियम हैं ।  नियम अपने देह एवं मन को नियंत्रित करता है । इसके पाँच अंग हैं =  (1) शौच – स्वयं को शुद्ध एवं साफ रखना शौच है ।  (2) संतोष – जितनी संपत्ति और क्षमता है , उस में प्रसन्न रहना संतोष है ।  (3) तप – तप में शरीर एवं मन को अभ्यास से योगानुसार ढालते हैं ।  (4) स्वाध्याय – स्वाध्याय में आप्त वाक्यों का स्वयं अध्ययन करते हैं ।  (5) ईश्वर प्रणिधान – ईश्वर के प्रति आस्था रखते हुये प्राणों का अर्पण करना ईश्वर प्रणिधान है ।  वितर्कबाधने प्रतिपक्षभावनम् ॥ ३३ ॥  वितर्क भावों को प्रतिपक्ष भावों से रोका जा सकता है ।  वितर्क अर्थात क्लिष्ट पैदा करने वाले भावों को प्रतिपक्ष अर्थात विपरीत भावों से रोका जा सकता है । जैसे अगर घृणा की भावना हो , तो ऐसा सोचना चाहिये की प्र

साधनपाद । सूत्र 26 - 30 ।

विवेकख्यातिरविप्लवा हानोपायः ॥ २६ ॥ अविप्लव विवेकख्याति इसको समाप्त करने के उपाय हैं । अविप्लव से यहाँ निरंतर का अर्थ बनता है । विवेक से सम्यक दृष्य देखने की क्षमता उत्पन्न होती है । विवेकख्याति का अर्थ है , देखने में विवेक का प्रयोग करना । अविप्लव विवेकख्याति से संयोग समाप्त होने लगता है , और पुरुष की कैवल्य में स्थिरता हो जाती है । तस्य सप्तधा प्रान्तभूमिः प्रज्ञा ॥ २७ ॥ प्रज्ञा की भूमि इन सात प्रकार के प्रांतों में है । प्रज्ञा विवेकपूर्ण बुद्धि है । जब विवेक उत्पन्न होने लगता है , तो बुद्धि मानसिक एवं शारीरिक भावों को सूक्ष्म तरीके से देखना शुरु कर देता है । यह प्रज्ञा है । प्रज्ञा सात प्रकार के प्रांतों में लागू होता है । इन सूत्रों में इसकी व्याख्या नहीं है । इसका अर्थ – मन , अहंकार एवं पाँच तन्मात्राओं – रुप , शब्द , रस , स्पर्श एवं राग – हो सकता है । प्रज्ञा इनको देखती है , एवं इनसे उत्पन्न होने वाले क्लिष्ट वृत्तियों को कम करती है , और अंततोगत्वा इनको समाप्त कर देती है । योगाङ्गानुष्ठानाद् अशुद्धिक्षये ज्ञानदीप्तिरा विवेकख्यातेः ॥ २८ ॥ योग के अंगों के अनुष्ठान से उपजी ज्