साधनपाद । सूत्र 46 - 50 ।
स्थिरसुखम् आसनम् ॥ ४६ ॥ सुखपूर्वक स्थिर होना आसन है | आसन में देह का स्थिर होना जरुरी होता है । इस स्थिति में देह को सुख होना चाहिये । यहाँ पर किसी विशेष आसन की बात नहीं की गयी है । परंतु अगर लंबे समय तक सुखपूर्वक स्थिर होना हो , तो यह आवश्यक है कि रीढ की हड्डी सीधी हो । ऐसे आसन भी हैं , जो देह को सुदृढ बनाते है , एवं हठयोग में उनका विशेष वर्णन है । प्रयत्नशैथिल्यानन्तसमापत्तिभ्याम् ॥ ४७ ॥ इसमें प्रयत्न में शिथिलता से अनंत की समापत्ति हो जाती है । आसन में बैठने पर प्रयत्न नहीं होना चाहिये । ऐसे आसन में बैठने पर फिर प्रयत्न करने की आवश्यकता नहीं होती है । इससे शरीर शिथिल होने लगता है, तत्पश्चात अनंत का आभास होने लगता है । ततो द्वन्द्वानभिघातः ॥ ४८ ॥ तब द्वन्द्वों से आघात नहीं होता । आसन में स्थिर हो जाने पर, द्वन्द्व भाव विचलित नहीं करते । चाहे सुखपूर्वक भाव उठे अथवा दुख पूर्वक भाव उठे , आसन में स्थित पुरुष का चित्त स्थ्रिर रहता है । द्वन्द्व परिस्थितियों में भी वो विचलित नहीं होते । तस्मिन् सति श्वासप्रश्वासयोर्गतिविच्छेदः प्राणायामः...