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Showing posts from February, 2009

समाधिपाद । सूत्र 26 - 30 ।

स पूर्वेषाम् अपि गुरुः कालेनानवच्छेदात् ॥ २६ ॥ काल से भी अनवच्छेदित , वह पूर्वजों का भी गुरू है । ईश्वर काल से परे है । जब काल अर्थात समय भी नहीं था , उस समय भी ईश्वर की सत्ता व्याप्त थी । वह प्रथम गुरू है । पूर्वजों को भी उसने प्रथम शिक्षा दी थी । ईश्वर अनादि है , वह अमर है । तस्य वाचकः प्रणवः ॥ २७ ॥ प्रणव अर्थात ॐ उसका वाचक है । यहां वाचक का अर्थ उस शब्द से है , जो ईश्वर की बात करता हो । ॐ ईश्वर का नाम है । यह ध्वनि में ईश्वर का मूर्त रुप है । तज्जपस्तदर्थभावनम् ॥ २८ ॥ उसके अर्थ के भाव के साथ उसका जप करो । योगी को प्रणव का जप करना चाहिये । और उसके साथ उसके अर्थ के भाव का भी स्मरण करना चाहिये । इसी को प्रारम्भ में ईश्वर प्रणिधान भी कहा गया । प्रणव के जाप एवं स्मरण से ईश्वर के प्रति भक्ति एवं समर्पण बढता है । ततः प्रत्यक्चेतनाधिगमोऽप्यन्तरायाभावश्च ॥ २९ ॥ उससे अंतरात्मा की चेतना का ज्ञान एवं विघ्नों का अभाव अर्थात अंत हो जाता है । ईश्वर प्रणिधान से अन्दर की चेतना जागृत हो जाती है । उपर के सूत्रों में कुछ उपायों का वर्णन है , जिससे चेतना जागृत हो जाती है । खास कर के , प्रणव के

समाधिपाद । सूत्र 21 - 25 ।

तीव्रसंवेगानाम् आसन्नः ॥ २१ ॥ तीव्र संवेग से शीघ्र होता है । यदि प्रयास तीव्र एवं जोर का हो , तो प्रज्ञा शीघ्र उत्पन्न होती है । तेजी से चलता हुआ योगाभ्यास शीघ्र सिद्ध होता है । मृदुमध्याधिमात्रत्वात् ततोऽपि विशेषः ॥ २२ ॥ उनमें भी मृदु , मध्य एवं उच्च का भेद हो जाता है । तीव्र संवेग वालों में भी किस प्रकार का अभ्यास है , उससे अंतर पड जाता है । अगर उच्च कोटि का प्रयास हो तो सिद्धि शीघ्र होती है । मध्य एवं मृदु कोटि के प्रयास ज्यादा समय लेते हैं । ईश्वरप्रणिधानाद् वा ॥ २३ ॥ अथवा , ईश्वर प्रणिधान से भी होता है । योगाभ्यास ईश्वर को प्राण समर्पित करने से भी होता है । ईश्वर के प्रति भक्ति हो , और श्रद्धापूर्वक समर्पण किया जाये तो उससे भी योग शीघ्र होता है । क्लेशकर्मविपाकाशयैरपरामृष्टः पुरुषविशेष ईश्वरः ॥ २४ ॥ क्लेश , कर्म , विपाक और आशय से जो विशेष पुरूष अपरामृष्ट हो वह ईश्वर है । इस सूत्र तथा अगले सूत्रों में ईश्वर की व्याख्या है । ईश्वर एक विशेष प्रकार का पुरूष है । वह क्लेश , कर्म , विपाक एवं आशय से प्रभावित नहीं होता । क्लेश ऐसे अनुभवों को कहते हैं , जिनसे चित्त की वृत्तियाँ

समाधिपाद । सूत्र 16 - 20 ।

तत्परं पुरुषख्यातेर्गुणवैतृष्ण्यम् ॥ १६ ॥ तब परम पुरूष दिखता है , और गुणों से वितृष्णा आ जाती है ॥ १६ ॥ प्रकृति में तीन प्रकार के गुण होते हैं – सत्त्व , रजस एवं तमस। प्रक़ृति को देखने एवं सुनने से विषय मन में तृष्णा पैदा करते हैं । ये तृष्णा व्यक्तिगत गुणों के प्रभाव से उत्पन्न होता है । वैराग्य से इस तृष्णा का नाश होता है । इससे चित्त की वृत्तियाँ समाप्त होने लगती हैं , एवं परम पुरुष दिखने लगता है । वितर्कविचारानन्दास्मितारूपानुगमात् संप्रज्ञातः ॥ १७ ॥ सम्प्रज्ञात में वितर्क , विचार , आनन्द एवं अस्मिता का अनुगमन होता है ॥ १७ ॥ सम्प्रज्ञात में चार प्रकार की भावनाएँ है – वितर्क , विचार , आनन्द एवं अस्मिता । वितर्क में बुद्धि तर्क से विषयों का विष्लेषण करती है । विचार में मन विषयों के बारे में सोचता है । सम्प्रज्ञात योग में वितर्क एवं विचार से अक्लिष्ट वृत्तियाँ जन्म लेती हैं । इनसे चित्त में आनन्द का भाव पनपता है । तत्पश्चात अस्मिता का भाव भी आता है , जिसमें आत्मस्वरुप का ज्ञान होने लगता है । विरामप्रत्ययाभ्यासपूर्वः संस्कारशेषोऽन्यः ॥ १८ ॥ पहले प्रत्यय में विराम आता है , और सिर्

समाधिपाद । सूत्र 11 - 15 ।

अनुभूतविषयासंप्रमोषः स्मृतिः ॥ ११ ॥ अनुभव किये हुए विषयों का न छुपना अर्थात प्रकट हो जाना स्मृति है ॥ ११ ॥ स्मृति में पुरानी बातें याद आती हैं । कुछ अनुभव जो कि मस्तिष्क में छुपे हुये हैं , मानस पटल पर प्रकट हो जाते हैं । इनके फलस्वरुप स्मृत्ति वृत्तियाँ पैदा होती हैं । अभ्यासवैराग्याभ्यां तन्निरोधः ॥ १२ ॥ वृत्तियों का निरोध अभ्यास एवं वैराग्य से होता है ॥ १२ ॥ यह कहने के बाद कि योग चित्त की वृत्तियों का निरोध है , ऋषि पतंजलि ने पाँच वृत्तियों का वर्णन किया । ये वृत्तियाँ हैं – प्रमाण , विपर्यय , विकल्प , निद्रा एवं स्मृति । क्लिष्ट वृत्तियाँ अक्लिष्ट वृत्तियों के द्वारा समाप्त की जा सकती हैं । योगी ऐसा अभ्यास एवं वैराग्य से कर सकता है । अगले सूत्रॉं में अभ्यास एवं वैराग्य की व्याख्या की गयी है । तत्र स्थितौ यत्नोऽभ्यासः ॥ १३ ॥ वह अर्थात वृत्तियाँ यत्न पूर्वक अभ्यास से स्थित हो जाती हैं ॥ १३ ॥ यहाँ पर यत्न का अर्थ लगातार प्रयास करने से है । अभ्यास का अर्थ है – किसी कार्य को अनंतर करते रहना । स तु दीर्घकालनैरन्तर्यसत्कारासेवितो दृढभूमिः ॥ १४ ॥ और , वह, अर्थात अभ्यास , लम्बे सम

समाधिपाद । सूत्र 6 - 10 ।

प्रमाणविपर्ययविकल्पनिद्रास्मृतयः ॥ ६ ॥ पाँच वृत्तियाँ हैं – प्रमाण , विपर्यय , विकल्प , निद्रा एवम स्मृति ॥ ६ ॥ पाँच प्रकार की वृत्तियों के नाम हैं – प्रमाण , विपर्यय , विकल्प , निद्रा एवम स्मृति । प्रत्यक्षानुमानागमाः प्रमाणानि ॥ ७ ॥ प्रत्य़क्ष , अनुमान एवं आगम – ये प्रमाण हैं ॥ ७ ॥ प्रमाणरुपी वृत्तियों को तर्क से सिद्ध किया जा सकता है । प्रमाण तीन प्रकार के हैं – (1) प्रत्यक्ष – जो आँखों के समक्ष हो , वो प्रत्यक्ष है । अगर आग सामने हो तो वो आग है , और मनुष्य को इससे सावधानी बरतनी चाहिये । मृत्यु सुनिश्चत है , और आपके समक्ष हो जाती है । अतः यह प्रामाणिक है कि सबकी मृत्यु होगी । क्लिष्ट प्रत्यक्ष वृत्ति मौत को देख कर भी ऐसा अह्सास देगी कि ऐसे जियो कि जैसे कभी मरोगे ही नहीं । अक्लिष्ट वृत्ति यह अहसास देगी कि मौत तो सुनिश्चित है , अब देर न करो ,कुछ सार्थक काम करो । आँख से रुप , कान से शब्द , नाक से गंध , जिह्वा से रस एवं त्वचा से स्पर्श की तन्मात्राएँ व्यक्त होती हैं और इनसे प्रत्यक्ष अनुभव होता है । योगी को इस अनुभव से कोई चित्तवृत्ति नहीं होती । यदि ये अनुभव क्लिष्ट वृत्तियाँ पैदा

समाधिपाद | सूत्र 1 - 5 |

अथ योगानुशासनम् ॥ १ ॥ अब योगानुशासन का प्रारम्भ करते हैं ॥ १ ॥ इस सूत्र से योग एवम अनुशासन के वर्णन को प्रारम्भ करने का संकल्प है । योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः ॥ २ ॥ योग चित्त की वृत्ति का निरोध है ॥ २ ॥ आँखें बंद करने पर मानस पटल पर जो दृष्य एवम विचार स्वयं उभरते हैं , वो चित्त की वृत्तियाँ से है । आत्मरुपी भावों से इनका सहज निरोध कर लेना , अर्थात इन भावों को स्वतः रोक लेना योग से सम्भव है । तदा द्रष्टुः स्वरूपेऽवस्थानम् ॥ ३ ॥ उस समय द्रष्टा अपने रुप में स्थिर हो जाता है ॥ ३ ॥ जब चित्त की वृत्तियाँ समाप्त हो जाती हैं , तब द्र्ष्टा को अपना सही रुप दिखायी देता है । यहाँ पर द्रष्टा का अर्थ क्षणिक शारीरिक एवम मानसिक सत्ता से परे पुरूष से है । योग के अभ्यास से स्त्री एवम पुरुष वृत्तियों को समाप्त कर जो सही रुप है , उसको देखना प्रारंभ कर देते हैं । वृत्तिसारूप्यम् इतरत्र ॥ ४ ॥ दूसरे समय में वृत्ति के सदृश स्वरुप होता है ॥ ४ ॥ जब चित्त में वृत्तियाँ वर्तमान हों , तो द्र्ष्टा को वृत्ति के द्वारा दिखायी देता है । ये वृत्तियाँ वास्तविक रुप को वैसे ही ढक देती हैं , जैसे कि बादल सूर्य को ढक