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Showing posts from March, 2009

साधनपाद । सूत्र 22 - 25 ।

कृतार्थं प्रति नष्टम् अप्यनष्टं तदन्यसाधारणत्वात् ॥ २२ ॥ अपना अर्थ पूरा कर दृष्य नष्ट हो जाता है , परंतु अन्य साधारण दृष्टि अनष्ट रहते हैं । जैसा पिछ्ले सूत्र में कहा गया है , दृष्य द्र्ष्टा के लिये ही रहते हैं । जब इनका अर्थ सिद्ध हो जाता है , तो ये स्वयमेव समाप्त हो जाते हैं । अन्य साधारण द्रष्टाओं के लिये ये दृष्य वर्तमान रह सकते हैं । स्वस्वामिशक्त्योः स्वरूपोपलब्धिहेतुः संयोगः ॥ २३ ॥ स्वरुप की उपलब्धि का कारण स्व एवं स्वामी की शक्ति का संयोग है । यहाँ पर स्व का अर्थ प्रक़ृति से है । स्वामी का अर्थ पुरुष से है । पुरुष एवं प्रकृति के संयोग से स्वरुप की उपलब्धि होती है । संयोग से पुरुष एवं प्रकृति का अर्थ करना मुश्किल हो जाता है । इसी कारण से दृष्य द्रष्टा को दिखायी देते हैं । तस्य हेतुरविद्या ॥ २४ ॥ यह अविद्या के कारण है । अविद्या , जो एक प्रकार का क्लेश है , इस संयोग को उत्पन्न करता है । अविद्या के समाप्त हो जाने पर द्र्ष्टा के दृष्य समाप्त होने लगते हैं । तदभावात् संयोगाभावो हानं । तद्दृशेः कैवल्यम् ॥ २५ ॥ उसके अभाव से संयोग का भाव समाप्त हो जाता है । वही कैवल्य का देख

साधनपाद । सूत्र 16 - 21 ।

हेयं दुःखम् अनागतम् ॥ १६ ॥ अनागत दुख हेय है । जो दुख अब तक नही आया है , उससे बचा जा सकता है । द्रष्टृदृश्ययोः संयोगो हेयहेतुः ॥ १७ ॥ द्रष्टा एवं दृष्य के संयोग से यह हेय है । अगर द्र्ष्टा एवं दृष्य का संयोग हो जाये , तो उससे अनागत दुख समाप्त हो जाते हैं । जब तक चित्त में वृत्तियाँ हों , दृष्य द्र्ष्टा के संस्कार भावों से प्रभावित है । इस समय द्र्ष्टा एवं दृष्य भिन्न हैं । जब चित्त की वृत्तियाँ समाप्त हो जाती हैं , तो अनागत दुख दुखभाव नहीं देता । इस समय द्र्ष्टा एवं दृष्य़ का संयोग हो गया रहता है । प्रकाशक्रियास्थितिशीलं भूतेन्द्रियात्मकं भोगापवर्गार्थं दृश्यम् ॥ १८ ॥ दृश्य प्रकाश , क्रिया एवं स्थिति के चरित्र , भूत एवं इन्द्रियों, और भोग एवं अपवर्ग के अर्थ से बनता है । दृश्य अर्थात जो दिखायी देता हो – वह प्रकाश , क्रिया एवं स्थिति के चरित्र से बना है । गुण तीन प्रकार के हैं – सत , रज एवं तम । सद्गुण प्रकाश के चरित्र का है । इस गुण में मन का अन्धकार समाप्त होने लगता है । राजसी गुण व्यक्ति को कर्म करने के लिये उत्साहित करते हैं । यह क्रिया से सम्बंधित है । तामसी गुण में आलस्य , क्र

साधनपाद । सूत्र 11 - 15 ।

ध्यानहेयास्तद्वृत्तयः ॥ ११ ॥ वो वृत्तियाँ ध्यान से कम हो जाती हैं । पिछले सूत्रों में पाँच वृत्तियाँ बतायी गयी है – अविद्या , अस्मिता , राग , द्वेष और अभिनिवेश । इन वृत्तियों की उत्पत्ति पुराने संस्कारों से होती है । ध्यान से ये क्लेश रुपी वृत्तियाँ क्षीण होते जाती है । ध्यान में शांत रुप से अंतर्मुखी होकर मन में उठने वाले विचारों को देखा जाता है । इससे ये विकार स्वयं कम होने लगते हैं । क्लेशमूलः कर्माशयो दृष्टादृष्टजन्मवेदनीयः ॥ १२ ॥ कर्माशय ही क्लेष का मूल है , इसकी वेदना दृष्ट अर्थात वर्तमान या अदृष्ट अर्थात अगले जन्मों में व्यक्त होगी । कर्माशय का अर्थ है – संचित भूतपूर्व कर्म । क्लेश वृत्तियाँ इन्हीं से निकलती हैं । ये आशय इस जन्म में , नहीं तो अगले जन्मों में प्रकट होती हैं । दृष्ट वर्तमान जन्म से है , क्योंकि वह दिखायी दे रहा है । अदृष्ट अगले जन्मों से है , क्योंकि वह अभी पता नहीं चलता । सति मूले तद्विपाको जात्यायुर्भोगाः ॥ १३ ॥ इस मूल से जाति , आयु एवं भोग का विपाक होता है । कर्माशय से अर्थ संचित कर्मों से है । जब तक इन मूलों का अस्तित्व है , जन्म , मरण एवं भोग का चक्र

साधनपाद । सूत्र 6 - 10 ।

दृग्दर्शनशक्त्योरेकात्मतेवास्मिता ॥ ६ ॥ अस्मिता दृग्दर्शन की शक्ति को एकात्मता के समान कर देता है । अस्मिता से अर्थ मन एवं अहंकार से है । यह व्यक्ति में आत्मता का भाव उत्पन्न करता है । इसमें मन में अहंकार पैदा होता है और व्यक्ति अपने आप को कर्ता समझने लगता है । यह भाव दृग्दर्शन को ढंक लेता है । दृग्दर्शन से अर्थ पुरूष के दर्शन से है । अस्मिता एक प्रकार का क्लेश है । इसमें व्यक्ति अपने देह से अतिशय प्रेम करने लगता है , और यह मोह उसे ईश्वर का सही रुप नहीं देखने देता । सुखानुशयी रागः ॥ ७ ॥ राग सुख का अनुशयी है । राग सुखी अनुभवों से पैदा होता है । जब किसी से सुख का अनुभव मिलता है , तो उस के प्रति मोह पैदा हो जाता है । अत्यधिक मोह से राग होता है , जो एक प्रकार का क्लिष्ट अनुभव है । दुःखानुशयी द्वेषः ॥ ८ ॥ द्वेष दुख का अनुशयी है । द्वेष दुखी अनुभवों से पैदा होता है । जब किसी से दुख का अनुभव मिलता है , तो उस के प्रति घृणा की भावना हो जाती है । इस से द्वेष होता है , जो एक प्रकार का क्लिष्ट अनुभव है । स्वरसवाही विदुषोऽपि तथारूढो भिनिवेशः ॥ ९ ॥ अभिनिवेश अपने रस में स्थिर होता है, और वि

साधनपाद । सूत्र 1 - 5 ।

तपःस्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि क्रियायोगः ॥ १ ॥ तप , स्वाध्याय एवं ईश्वरप्रणिधान क्रिया योग है । क्रिया योग के तीन अंग हैं – तप , स्वाध्याय एवं ईश्वर प्रणिधान । तप से अर्थ है – मन , कर्म एवं वचन से स्वधर्म का सहर्ष पालन करना । अपने धर्म के पालन में कई प्रकार के कष्ट उत्पन्न होते है । इन कष्टकारी परिस्थितियों में भी अपने धर्म का पालन करना तप है । स्वाध्याय से अर्थ है – स्वयं पढ्ना । आप्त वचनों का अध्ययन करना एवं उसको ध्यान में रखना स्वाध्याय हैं । स्वाध्याय से सही ज्ञान होता है । ईश्वर प्रणिधान से अर्थ है – ईश्वर के प्रति अपने प्राणों को आधीन कर देना । इसके अंतर्गत ईश्वर के प्रति प्रगाढ आस्था उत्पन्न होती है । समाधिभावनार्थः क्लेशतनूकरणार्थश्च ॥ २ ॥ यह समाधिभाव देता है एवं क्लेश को कमजोर बना देता है । योग का लक्ष्य क्लेष को समाप्त करना होता है । क्रिया योग क्लेश को कमजोर कर देता है । यह समाधि का भी भाव उत्पन्न करता है । समाधि में चित्त की वृत्तियाँ कम होने लगती हैं । अविद्यास्मितारागद्वेषाभिनिवेशाः क्लेशाः ॥ ३ ॥ अविद्या , अस्मिता , राग , द्वेष एवं अभिनिवेश – ये क्लेश हैं । यहाँ पर

समाधिपाद । सूत्र 46 - 51 ।

ता एव सबीजः समाधिः ॥ ४६ ॥ ये सभी सबीज समाधि है । सवितर्क , निर्वितर्क , सविचार एवं निर्विचार – ये सारी समाधियाँ सबीज हैं । इनमें चित्त निर्मल एवं शुद्ध हो जाता है , परंतु इन सारी वृत्तियों में अभी भी ध्येय पदार्थ की चित्त वृत्तियाँ शेष रहती हैं । निर्विचारवैशारद्येऽध्यात्मप्रसादः ॥ ४७ ॥ निर्विचार की पवित्रता में अध्यात्म प्रसन्न होता है । निर्विचार समाधि में अध्यात्म ज्ञान उत्पन्न होने लगता है । ऋतंभरा तत्र प्रज्ञा ॥ ४८ ॥ तब प्रज्ञा ऋतंभरा हो जाती है । प्रज्ञा तब सत्य पर आधारित हो जाती है । अब प्रज्ञा को सही रुप दिखायी देने लगता है । श्रुतानुमानप्रज्ञाभ्याम् अन्यविषया विशेषार्थत्वात् ॥ ४९ ॥ इसमें विषयों का अर्थ श्रुत (सुने हुए ) , अनुमानित ( अनुमान किये हुए ) एवं प्रज्ञा से प्राप्त अनुभओं से अलग एवं विशेष होता है | ऋतंभरा में प्राप्त अनुभव विशेष एवं भिन्न होते हैं । यह सुने हुये , अनुमान किये हुये एवं साधारण अनुभवों से अलग होते हैं । तज्जः संस्कारोन्यसंस्कारप्रतिबन्धी ॥ ५० ॥ तब उत्प्न्न संस्कार अन्य संस्कारों को समाप्त कर देते हैं । इस समाधि में उत्पन्न होने वाले संस्कार अ

समाधिपाद । सूत्र 41 - 45 ।

क्षीणवृत्तेरभिजातस्येव मणेर्ग्रहीतृग्रहणग्राह्येषु तत्स्थतदञ्जनतासमापत्तिः ॥ ४१ ॥ वृत्तियो के क्षीण हो जाने पर समापत्ति उत्पन्न होती है , जिसमें ग्रहीता , ग्रहण एवं ग्राह्येषु में स्थिर वैसा ही स्वरुप ले लेता है , जैसा पवित्र मणि लेता है । वृत्तियों के कमजोर हो जाने पर मन शांत हो जाता है । ऐसी स्थिति में जैसे पवित्र मणि वाह्य स्वरुप का बिना किसी अपरुप के , सही प्रतिबिम्ब दिखाता है , वैसे ही चित्त भी सही रुप को देखना शुरु कर देता है । इस दृष्टि के तीन अंग हैं – ग्रहीता , ग्रहण एवं ग्राह्य । ग्राह्य से अर्थ अनुभूत विचारों से है । किसी विषय से जो अनुभव मन एवं बुद्धि में पैदा होते हैं , वो ग्राह्य है । ग्रहीता कर्ता का रुप है । ग्रहण ग्रहीता द्वारा ग्राह्य के अनुभव करने की क्रिया है । वृत्तियों के क्षीण हो जाने, ग्रहीता को ग्राह्य का जैसा रुप है , वैसा ही दिखने लिगता है । तत्र शब्दार्थज्ञानविकल्पैः संकीर्णा सवितर्का समापत्तिः ॥ ४२ ॥ तब शब्द , अर्थ एवं ज्ञान के विकल्प से संकीर्ण समापत्ति सवितर्क है । चित्त के शांत हो जाने पर जब शब्द , अर्थ एवं ज्ञान के विकल्पों पर ध्यान दिया जाये , तो स

समाधिपाद । सूत्र 36 - 40 ।

विशोका वा ज्योतिष्मती ॥ ३६ ॥ शोकरहित एवं ज्योतिपूर्ण भावों से भी होता है । ऐसे विचार जिनमें शोक का अभाव हो , उनसे भी चित्त निर्मल होता है । ज्योतिपूर्ण भाव , अर्थात वो विचार जो चित्त में अद्भुत ज्योति भर दें , उनसे भी निर्मलता आती है । इस सूत्र में अक्लिष्ट वृत्तियों के प्रभाव की बात की गयी है । वीतरागविषयं वा चित्तम् ॥ ३७ ॥ अथवा चित्त को राग एवं विषय से स्वतंत्र करने पर होता है । राग से अर्थ आसक्ति से है । आसक्ति से चित्त चंचल होता है । विषय से अर्थ इन्द्रियों से अनुभव करने वाले वो विचार हैं , जो काम , क्रोध , मद , लोभ एवं मोह उत्पन्न करते हैं । चित्त अगर वीतरागविषय हो , अर्थात राग और विषय के बिना हो तो , एकतत्व का अभ्यास होता है । इससे भी चित्त निर्मल एवं स्वच्छ होता है । स्वप्ननिद्राज्ञानालम्बनं वा ॥ ३८ ॥ स्वप्न एवं निद्रा के ज्ञान पर आधारित चित्त भी स्थिर होता है । स्वप्न एवं निद्रा में भी ज्ञान मिलता है । इसकी यहाँ विशेष चर्चा है क्योंकि निद्रावस्था में मन जागृत नहीं रहता । इसके फलस्वरुप , स्वप्न में व्यक्ति की अंतर्मन की बातें व्यक्त होती हैं । इनसे प्राप्त ज्ञान से भी चि

समाधिपाद । सूत्र 31 - 35 ।

दुःखदौर्मनस्याङ्गमेजयत्वश्वासप्रश्वासा विक्षेपसहभुवः ॥ ३१ ॥ दुख, दौर्मनस्य, अंगमेजयत्व, श्वास एवं प्रश्वास – ये चित्तविक्षेप से अनुभूत होते हैं । विक्षेपों से इन भावों का अनुभव होता है – दुख – दुख से मन एवं शरीर में पीडा का अनुभव होता है । दुख के कारणानुसार तीन प्रकार हैं – आधिभौतिक , आध्यात्मिक एवं आधिदैविक । शरीर से उत्पन्न दुख आधिदैविक है । मन में काम, क्रोध, मद, मान एवं मोह से उत्पन्न होने वाला दुख आध्यात्मिक है । जो दुख भूकम्प , सर्दी , गर्मी इत्यादि से उत्पन्न हो वह आधिदैविक है । दौर्मनस्य – इच्छा की पूर्ति न होने पर जो क्षोभ की भावना उत्पन्न हो वह दौर्मनस्य है । अंगमेजयत्व – शरीर के अंगों में कम्पन होना अंगमेजयत्व है । यह शरीर में कमजोरी से होता है । यह स्नायुतंत्रॉं की कमजोरी से भी उत्पन्न होता है । श्वास – विक्षेपों से साँस अन्दर लेने में भी दिक्कत होती है । प्रश्वास – विक्षेपों से साँस छोड्ने में भी दिक्कत होती है । तत्प्रतिषेधार्थम् एकतत्त्वाभ्यासः ॥ ३२ ॥ उनके प्रतिषेध के लिये एकतत्व का अभ्यास करना चाहिये । विघ्नो को रोकने के लिये एकतत्व का अभ्यास करना चाहिये । एकतत्व स