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Showing posts from April, 2009

साधनपाद । सूत्र 41 - 45 ।

सत्त्वशुद्धिसौमनस्यैकाग्र्येन्द्रियजयात्मदर्शनयोग्यत्वानि च ॥ ४१ ॥  इसके अलावा , सत्त्व , शुद्धि , सौमनस्य , एकाग्रता , इन्द्रियों पर विजय एवं आत्मदर्शन की योग्यता भी आती है ।  शौच से और भी कई योग्यताओं की प्राप्ति होती है । इससे सत्व अर्थात सत्यभाव उत्पन्न होने लगता है । शुद्धि से तात्पर्य शुद्ध अर्थात साफ अस्तित्व से है । सौमनस्य में विपरीत परिस्थितियों में भी शांत भाव बना रहता है । एकाग्र होने से जिस कर्म का सम्पादन हो रहा हो , सिर्फ उसी पर मन लगा रहता है । अपने अंगों से वैराग्य उत्पन्न हो जाने पर इन्द्रियाँ देह को प्रभावित करने में असफल हो जाती हैं, और अंततः इन्द्रियों पर पूर्ण विजय प्राप्त हो जाता है । इससे चित्त शांत होने लगता है , और आत्मदर्शन की योग्यता आती है ।  संतोषाद् अनुत्तमः सुखलाभः ॥ ४२ ॥  संतोष से अत्युत्तम सुख का लाभ होता है ।  संतोष से जितना हो , उसी में सुखपूर्वक रहने की इच्छा होती है । और विषयों पर मन नहीं भागता , और इससे अनुत्तम सुख का लाभ होता है ।  कायेन्द्रियसिद्धिरशुद्धिक्षयात् तपसः ॥ ४३ ॥  तप से अशुद्धि कम होता है , जिससे देह और इन्द्रियों की सिद्धि हो जाती ह

साधनपाद । सूत्र 36 - 40 ।

सत्यप्रतिष्ठायां क्रियाफलाश्रयत्वम् ॥ ३६ ॥  सत्य में प्रतिष्ठित होने पर क्रिया के फल का आश्रय हो जाता है ।  जो सत्य में प्रतिष्ठित है , वह कर्म और उससे होने वाले फल को सही देखना शुरु कर देते हैं । इससे कर्म के सही फल मिलना शुरू हो जाता है ।  अस्तेयप्रतिष्ठायां सर्वरत्नोपस्थानम् ॥ ३७ ॥  अस्तेय में प्रतिष्ठित होने पर सभी रत्न स्वयं उपस्थित हो जाते हैं ।  अस्तेय का अर्थ है – चोरी न करना । जो सम्पत्ति अपनी अर्जित न हो , उसे अपना कर लेना अस्तेय है । अस्तेय में प्रतिष्ठित होने पर दूसरों का विश्वास बढने लगता है । इससे उस व्यक्ति के पास सारी आवश्यकता की चीजें स्वयं उपलब्ध होने लगते हैं ।  ब्रह्मचर्यप्रतिष्ठायां वीर्यलाभः ॥ ३८ ॥  ब्रह्मचर्य में प्रतिष्ठित होने पर वीर्य का लाभ होता है ।  ब्रह्मचर्य में प्रतिष्ठित होने पर शक्ति बढ्ने लगती है । ब्रह्मचर्य में लैंगिक संबंधों में संयंम की अत्यावश्यकता है । वीर्य से शक्ति बढती है , और संयंम से मानसिक एवं शारीरिक शक्ति का विकास होता है ।  अपरिग्रहस्थैर्ये जन्मकथंतासंबोधः ॥ ३९ ॥  अपरिग्रह की स्थिति हो जाने पर जन्म के कारण का संबोध हो जाता है ।  अपरिग्र

साधनपाद । सूत्र 31 - 35 ।

जातिदेशकालसमयानवच्छिन्नाः सार्वभौमा महाव्रतम् ॥ ३१ ॥  जाति , देश , काल एवं समय से परे ये सार्वभौम महाव्रत है ।  ये महाव्रत जन्म , स्थान , समय से परे हैं । ये हमेशा एवं हर जगह लागू होते हैं । अष्टांग योग सार्वभौम महाव्रत हैं ।  शौचसंतोषतपःस्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि नियमाः ॥ ३२ ॥  शौच , संतोष , तप , स्वाध्याय एवं ईश्वरप्रणिधान – ये नियम हैं ।  नियम अपने देह एवं मन को नियंत्रित करता है । इसके पाँच अंग हैं =  (1) शौच – स्वयं को शुद्ध एवं साफ रखना शौच है ।  (2) संतोष – जितनी संपत्ति और क्षमता है , उस में प्रसन्न रहना संतोष है ।  (3) तप – तप में शरीर एवं मन को अभ्यास से योगानुसार ढालते हैं ।  (4) स्वाध्याय – स्वाध्याय में आप्त वाक्यों का स्वयं अध्ययन करते हैं ।  (5) ईश्वर प्रणिधान – ईश्वर के प्रति आस्था रखते हुये प्राणों का अर्पण करना ईश्वर प्रणिधान है ।  वितर्कबाधने प्रतिपक्षभावनम् ॥ ३३ ॥  वितर्क भावों को प्रतिपक्ष भावों से रोका जा सकता है ।  वितर्क अर्थात क्लिष्ट पैदा करने वाले भावों को प्रतिपक्ष अर्थात विपरीत भावों से रोका जा सकता है । जैसे अगर घृणा की भावना हो , तो ऐसा सोचना चाहिये की प्र

साधनपाद । सूत्र 26 - 30 ।

विवेकख्यातिरविप्लवा हानोपायः ॥ २६ ॥ अविप्लव विवेकख्याति इसको समाप्त करने के उपाय हैं । अविप्लव से यहाँ निरंतर का अर्थ बनता है । विवेक से सम्यक दृष्य देखने की क्षमता उत्पन्न होती है । विवेकख्याति का अर्थ है , देखने में विवेक का प्रयोग करना । अविप्लव विवेकख्याति से संयोग समाप्त होने लगता है , और पुरुष की कैवल्य में स्थिरता हो जाती है । तस्य सप्तधा प्रान्तभूमिः प्रज्ञा ॥ २७ ॥ प्रज्ञा की भूमि इन सात प्रकार के प्रांतों में है । प्रज्ञा विवेकपूर्ण बुद्धि है । जब विवेक उत्पन्न होने लगता है , तो बुद्धि मानसिक एवं शारीरिक भावों को सूक्ष्म तरीके से देखना शुरु कर देता है । यह प्रज्ञा है । प्रज्ञा सात प्रकार के प्रांतों में लागू होता है । इन सूत्रों में इसकी व्याख्या नहीं है । इसका अर्थ – मन , अहंकार एवं पाँच तन्मात्राओं – रुप , शब्द , रस , स्पर्श एवं राग – हो सकता है । प्रज्ञा इनको देखती है , एवं इनसे उत्पन्न होने वाले क्लिष्ट वृत्तियों को कम करती है , और अंततोगत्वा इनको समाप्त कर देती है । योगाङ्गानुष्ठानाद् अशुद्धिक्षये ज्ञानदीप्तिरा विवेकख्यातेः ॥ २८ ॥ योग के अंगों के अनुष्ठान से उपजी ज्