Posts

Showing posts from June, 2009

साधनपाद । सूत्र 46 - 50 ।

स्थिरसुखम् आसनम् ॥ ४६ ॥  सुखपूर्वक स्थिर होना आसन है |  आसन में देह का स्थिर होना जरुरी होता है । इस स्थिति में देह को सुख होना चाहिये । यहाँ पर किसी विशेष आसन की बात नहीं की गयी है । परंतु अगर लंबे समय तक सुखपूर्वक स्थिर होना हो , तो यह आवश्यक है कि रीढ की हड्डी सीधी हो । ऐसे आसन भी हैं , जो देह को सुदृढ बनाते है , एवं हठयोग में उनका विशेष वर्णन है ।  प्रयत्नशैथिल्यानन्तसमापत्तिभ्याम् ॥ ४७ ॥  इसमें प्रयत्न में शिथिलता से अनंत की समापत्ति हो जाती है ।  आसन में बैठने पर प्रयत्न नहीं होना चाहिये । ऐसे आसन में बैठने पर फिर प्रयत्न करने की आवश्यकता नहीं होती है । इससे शरीर शिथिल होने लगता है, तत्पश्चात अनंत का आभास होने लगता है ।  ततो द्वन्द्वानभिघातः ॥ ४८ ॥  तब द्वन्द्वों से आघात नहीं होता ।  आसन में स्थिर हो जाने पर, द्वन्द्व भाव विचलित नहीं करते । चाहे सुखपूर्वक भाव उठे अथवा दुख पूर्वक भाव उठे , आसन में स्थित पुरुष का चित्त स्थ्रिर रहता है । द्वन्द्व परिस्थितियों में भी वो विचलित नहीं होते ।  तस्मिन् सति श्वासप्रश्वासयोर्गतिविच्छेदः प्राणायामः ॥ ४९ ॥  इसमें स्थिर हो जाने के बाद श्वास एव