समाधिपाद | सूत्र 1 - 5 |
अथ योगानुशासनम् ॥ १ ॥
अब योगानुशासन का प्रारम्भ करते हैं ॥ १ ॥
इस सूत्र से योग एवम अनुशासन के वर्णन को प्रारम्भ करने का संकल्प है ।
योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः ॥ २ ॥
योग चित्त की वृत्ति का निरोध है ॥ २ ॥
आँखें बंद करने पर मानस पटल पर जो दृष्य एवम विचार स्वयं उभरते हैं , वो चित्त की वृत्तियाँ से है । आत्मरुपी भावों से इनका सहज निरोध कर लेना , अर्थात इन भावों को स्वतः रोक लेना योग से सम्भव है ।
तदा द्रष्टुः स्वरूपेऽवस्थानम् ॥ ३ ॥
उस समय द्रष्टा अपने रुप में स्थिर हो जाता है ॥ ३ ॥
जब चित्त की वृत्तियाँ समाप्त हो जाती हैं , तब द्र्ष्टा को अपना सही रुप दिखायी देता है । यहाँ पर द्रष्टा का अर्थ क्षणिक शारीरिक एवम मानसिक सत्ता से परे पुरूष से है । योग के अभ्यास से स्त्री एवम पुरुष वृत्तियों को समाप्त कर जो सही रुप है , उसको देखना प्रारंभ कर देते हैं ।
वृत्तिसारूप्यम् इतरत्र ॥ ४ ॥
दूसरे समय में वृत्ति के सदृश स्वरुप होता है ॥ ४ ॥
जब चित्त में वृत्तियाँ वर्तमान हों , तो द्र्ष्टा को वृत्ति के द्वारा दिखायी देता है । ये वृत्तियाँ वास्तविक रुप को वैसे ही ढक देती हैं , जैसे कि बादल सूर्य को ढक देते हैं ।
वृत्तयः पञ्चतय्यः क्लिष्टा अक्लिष्टाः ॥ ५ ॥
क्लिष्ट एवम अक्लिष्ट वृत्तियाँ पाँच प्रकार की होती हैं ॥ ५ ॥
वृत्तियाँ पाँच प्रकार की होती हैँ । प्रत्येक प्रकार की वृत्तियाँ के दो भेद बताये गये हैँ – क्लिष्ट एवम अक्लिष्ट । क्लिष्ट वृत्तियाँ चित्त के वृत्तियों को बढाती हैं । अक्लिष्ट वृत्तियाँ क्लिष्ट वृत्तियों को समाप्त कर देती हैं । अतः यदि चिदाकाश में अक्लिष्ट वृत्तियाँ उठें , तो उन्हें अक्लिष्ट वृत्तियों के द्वारा रोका जा सकता है ।क्लिष्ट एवम अक्लिष्ट वृत्तियों का अंतर उनके प्रभाव के द्वारा व्यक्त होता है । क्लिष्ट वृत्तियाँ क्लेश बढाती हैं , और अक्लिष्ट वृत्तियाँ क्लेश को कम करती हैं । अगले छह सूत्रों में पाँच प्रकार की वृत्तियों का वर्णन है ।
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