समाधिपाद । सूत्र 11 - 15 ।

अनुभूतविषयासंप्रमोषः स्मृतिः ॥ ११ ॥ अनुभव किये हुए विषयों का न छुपना अर्थात प्रकट हो जाना स्मृति है ॥ ११ ॥ स्मृति में पुरानी बातें याद आती हैं । कुछ अनुभव जो कि मस्तिष्क में छुपे हुये हैं , मानस पटल पर प्रकट हो जाते हैं । इनके फलस्वरुप स्मृत्ति वृत्तियाँ पैदा होती हैं । अभ्यासवैराग्याभ्यां तन्निरोधः ॥ १२ ॥ वृत्तियों का निरोध अभ्यास एवं वैराग्य से होता है ॥ १२ ॥ यह कहने के बाद कि योग चित्त की वृत्तियों का निरोध है , ऋषि पतंजलि ने पाँच वृत्तियों का वर्णन किया । ये वृत्तियाँ हैं – प्रमाण , विपर्यय , विकल्प , निद्रा एवं स्मृति । क्लिष्ट वृत्तियाँ अक्लिष्ट वृत्तियों के द्वारा समाप्त की जा सकती हैं । योगी ऐसा अभ्यास एवं वैराग्य से कर सकता है । अगले सूत्रॉं में अभ्यास एवं वैराग्य की व्याख्या की गयी है । तत्र स्थितौ यत्नोऽभ्यासः ॥ १३ ॥ वह अर्थात वृत्तियाँ यत्न पूर्वक अभ्यास से स्थित हो जाती हैं ॥ १३ ॥ यहाँ पर यत्न का अर्थ लगातार प्रयास करने से है । अभ्यास का अर्थ है – किसी कार्य को अनंतर करते रहना । स तु दीर्घकालनैरन्तर्यसत्कारासेवितो दृढभूमिः ॥ १४ ॥ और , वह, अर्थात अभ्यास , लम्बे समय तक लगातार आदरपूर्वक करने पर दृढ होते जाता है ॥ १४ ॥ अभ्यास के विभिन्न अंग हैं – दीर्घ काल तक योग करना , योग के प्रति श्रद्धा रखना एवं निरंतर योग करना । ऐसा करने से जिसका अभ्यास किया जाता है , वह दृढ हो जाता है । दृष्टानुश्रविकविषयवितृष्णस्य वशीकारसंज्ञा वैराग्यम् ॥ १५ ॥ देखे और सुने हुए विषयों के प्रति तृष्णा , अर्थात लगाव , के अभाव के वशीभूत हो जाना वैराग्य है ॥ १५ ॥ वैराग्य का अर्थ है – राग का अभाव । इन्द्रियों से जब विषयों का अनुभव होता है , तब वो चित्त में राग पैदा करते हैं । व्यक्ति सुख एवं दुख के थपेडे खाते रहता है । वैराग्य का अर्थ है कि विषयों से पैदा होने वाले लगाव को न आने देना । ऐसे लगाव से मोह होता है , जो योगाभ्यास में बाधक है । इसका अर्थ यह भी नहीं है कि विषयों को देखा और सुना न जाये । यह तो अवश्यंभावी है । सिर्फ विषयों के प्रति तृष्णा नहीं होने देना चाहिये ।

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