समाधिपाद । सूत्र 21 - 25 ।
तीव्रसंवेगानाम् आसन्नः ॥ २१ ॥
तीव्र संवेग से शीघ्र होता है ।
यदि प्रयास तीव्र एवं जोर का हो , तो प्रज्ञा शीघ्र उत्पन्न होती है । तेजी से चलता हुआ योगाभ्यास शीघ्र सिद्ध होता है ।
मृदुमध्याधिमात्रत्वात् ततोऽपि विशेषः ॥ २२ ॥
उनमें भी मृदु , मध्य एवं उच्च का भेद हो जाता है ।
तीव्र संवेग वालों में भी किस प्रकार का अभ्यास है , उससे अंतर पड जाता है । अगर उच्च कोटि का प्रयास हो तो सिद्धि शीघ्र होती है । मध्य एवं मृदु कोटि के प्रयास ज्यादा समय लेते हैं ।
ईश्वरप्रणिधानाद् वा ॥ २३ ॥
अथवा , ईश्वर प्रणिधान से भी होता है ।
योगाभ्यास ईश्वर को प्राण समर्पित करने से भी होता है । ईश्वर के प्रति भक्ति हो , और श्रद्धापूर्वक समर्पण किया जाये तो उससे भी योग शीघ्र होता है ।
क्लेशकर्मविपाकाशयैरपरामृष्टः पुरुषविशेष ईश्वरः ॥ २४ ॥
क्लेश , कर्म , विपाक और आशय से जो विशेष पुरूष अपरामृष्ट हो वह ईश्वर है ।
इस सूत्र तथा अगले सूत्रों में ईश्वर की व्याख्या है । ईश्वर एक विशेष प्रकार का पुरूष है । वह क्लेश , कर्म , विपाक एवं आशय से प्रभावित नहीं होता । क्लेश ऐसे अनुभवों को कहते हैं , जिनसे चित्त की वृत्तियाँ बढ्ती हैं । ईश्वर पर क्लिष्ट वृत्तियों का प्रभाव नहीं होता । क्लेश दुख एवं कष्ट देता है । कर्म से साधारण पुरूष सुख एवं दुख का अनुभव करते हैं , और कर्म से आसक्ति कर लेते हैं । कर्म के फलीभूत होने की आसक्ति विपाक से सम्बंधित है । ईश्वर कर्म फल के प्रति आसक्त नहीं होता । कर्म से उत्पन्न होने वाले अनुभवों को भी संचित नहीं रखता । आशय का अर्थ है , कर्म से होने वाले अनुभवों को हृदय में संचित रखना । अर्थात कर्म से उत्पन्न होने वाले विपाक एवं आशय से ईश्वर अनासक्त है ।
तत्र निरतिशयं सर्वज्ञ्त्वबीजम् ॥ २५ ॥
वह सब ज्ञान का बीज है और उससे कोई अतिशय नहीं है ।
ईश्वर को सर्वज्ञान है । उससे बढकर भी कोई नहीं । अतिशय का अर्थ है – ज्यादा । ईश्वर से ज्यादा ज्ञानी कोई नहीं ।
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