साधनपाद । सूत्र 11 - 15 ।
ध्यानहेयास्तद्वृत्तयः ॥ ११ ॥
वो वृत्तियाँ ध्यान से कम हो जाती हैं ।
पिछले सूत्रों में पाँच वृत्तियाँ बतायी गयी है – अविद्या , अस्मिता , राग , द्वेष और अभिनिवेश । इन वृत्तियों की उत्पत्ति पुराने संस्कारों से होती है । ध्यान से ये क्लेश रुपी वृत्तियाँ क्षीण होते जाती है । ध्यान में शांत रुप से अंतर्मुखी होकर मन में उठने वाले विचारों को देखा जाता है । इससे ये विकार स्वयं कम होने लगते हैं ।
क्लेशमूलः कर्माशयो दृष्टादृष्टजन्मवेदनीयः ॥ १२ ॥
कर्माशय ही क्लेष का मूल है , इसकी वेदना दृष्ट अर्थात वर्तमान या अदृष्ट अर्थात अगले जन्मों में व्यक्त होगी ।
कर्माशय का अर्थ है – संचित भूतपूर्व कर्म । क्लेश वृत्तियाँ इन्हीं से निकलती हैं । ये आशय इस जन्म में , नहीं तो अगले जन्मों में प्रकट होती हैं । दृष्ट वर्तमान जन्म से है , क्योंकि वह दिखायी दे रहा है । अदृष्ट अगले जन्मों से है , क्योंकि वह अभी पता नहीं चलता ।
सति मूले तद्विपाको जात्यायुर्भोगाः ॥ १३ ॥
इस मूल से जाति , आयु एवं भोग का विपाक होता है ।
कर्माशय से अर्थ संचित कर्मों से है । जब तक इन मूलों का अस्तित्व है , जन्म , मरण एवं भोग का चक्र चलता रहता है । जाति का अर्थ जन्म से है । आयु का अर्थ यहाँ पर जीवित अवस्था से है । आयुहीन का अर्थ मरण से है । जब तक आयु है , भोग का क्रम चलता रहता है । ये अनुभव कर्माशय मूल से उत्पन्न होते हैं । जब तक कर्माशय संचित है , यह चक्र चलता रहता है ।
ते ह्लादपरितापफलाः पुण्यापुण्यहेतुत्वात् ॥ १४ ॥
इन पुण्य एवं अपुण्य कारणों से आह्लाद एवं परिताप होता है । भोग या तो पुण्य रुप के हैं , अथवा अपुण्य रुप के हैं । इनसे खुशी या गम होता है । परंतु ये आह्लाद एवं परिताप दुख के ही रुप हैं । यह अगले सूत्र में बताया गया है ।
परिणामतापसंस्कारदुःखैर्गुणवृत्तिविरोधाच् च दुःखम् एव सर्वं विवेकिनः ॥ १५ ॥
परिणाम ताप, संस्कार से दुख एवं गुण तथा वृत्ति के विरोध से दुख – विवेकी सर्वत्र दुख देखता है । परिणाम ताप से अर्थ कर्म के फलस्वरुप हुये दुख से है । संस्कार कर्माशय से होता है । संस्कार से भी अनुभव दुख प्रतीत होते हैं । गुण और वृत्ति के विरोध से भी दुख होता है । विवेकी सर्वत्र दुख देखता है ।
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