साधनपाद । सूत्र 16 - 21 ।
हेयं दुःखम् अनागतम् ॥ १६ ॥
अनागत दुख हेय है । जो दुख अब तक नही आया है , उससे बचा जा सकता है ।
द्रष्टृदृश्ययोः संयोगो हेयहेतुः ॥ १७ ॥
द्रष्टा एवं दृष्य के संयोग से यह हेय है ।
अगर द्र्ष्टा एवं दृष्य का संयोग हो जाये , तो उससे अनागत दुख समाप्त हो जाते हैं । जब तक चित्त में वृत्तियाँ हों , दृष्य द्र्ष्टा के संस्कार भावों से प्रभावित है । इस समय द्र्ष्टा एवं दृष्य भिन्न हैं । जब चित्त की वृत्तियाँ समाप्त हो जाती हैं , तो अनागत दुख दुखभाव नहीं देता । इस समय द्र्ष्टा एवं दृष्य़ का संयोग हो गया रहता है ।
प्रकाशक्रियास्थितिशीलं भूतेन्द्रियात्मकं भोगापवर्गार्थं दृश्यम् ॥ १८ ॥
दृश्य प्रकाश , क्रिया एवं स्थिति के चरित्र , भूत एवं इन्द्रियों, और भोग एवं अपवर्ग के अर्थ से बनता है ।
दृश्य अर्थात जो दिखायी देता हो – वह प्रकाश , क्रिया एवं स्थिति के चरित्र से बना है । गुण तीन प्रकार के हैं – सत , रज एवं तम । सद्गुण प्रकाश के चरित्र का है । इस गुण में मन का अन्धकार समाप्त होने लगता है । राजसी गुण व्यक्ति को कर्म करने के लिये उत्साहित करते हैं । यह क्रिया से सम्बंधित है । तामसी गुण में आलस्य , क्रोध के वजह से मन एवं शरीर भारी रहता है । ऐसा लगता है कि देह भारी होकर स्थिर हो गया हो । दृश्य इन तीन प्रकार के चरित्र से समाहित है । दृश्य में भूत अर्थात पदार्थ एवं इन्द्रियों द्वारा उनका अनुभव सम्मिलित है । कर्मेन्द्रियों एवं ज्ञानेन्द्रियों के द्वारा दृश्य का अनुभव होता है । भोग अर्थात विषयों का भोग करना एवं अपवर्ग अर्थात उनको छोड देना भी दृश्य के अंतर्गत आते हैं ।
विशेषाविशेषलिङ्गमात्रालिङ्गानि गुणपर्वाणि ॥ १९ ॥
विशेष , अविशेष , लिंगमात्र , एवं अलिंग – ये गुण के पर्व हैं । पर्व का अर्थ अवस्था से है । गुण विशेष अथवा अविशेष होता है । यह लिंग और अलिंग रुप में भी प्रकट होता है । इस सूत्र में यह बताया जा रहा है कि दृष्य गुण के इन अवस्थाओं से बनता है ।
द्रष्टा दृशिमात्रः शुद्धोऽपि प्रत्ययानुपश्यः ॥ २० ॥
द्र्ष्टा शुद्ध दृशिमात्र है , परंतु प्रत्यय के अनुरुप दिखता है ।
द्र्ष्टा दृष्टि है । दृष्टि का अर्थ है जो दिखायी दे । यहाँ इसका अर्थ सम्पूर्ण इन्द्रियों से होने वाले अनुभव से है । द्र्ष्टा शुद्ध दृष्टि देखने में सक्षम है । परंतु, जो दिखायी देता है , वह प्रत्यय के अनुरूप है । प्रत्यय से अर्थ दृष्टि के द्वारा मन में उभरने वाले विचारों से है । यह प्रत्यय संस्कारों से बनता है ।
तदर्थ एव दृश्यस्यात्मा ॥ २१ ॥
उस दृष्य का रुप उस द्र्ष्टा के लिये है ।
द्र्ष्टा जो दृष्य का अनुभव करता है , वह प्रत्यय एकमात्र उसके लिये ही है । विभिन्न द्र्ष्टा समान दृष्य को अपने प्रत्यय के अनुसार विभिन्न तरीके से देखते हैं । अत: दृष्य का रुप उस द्रष्टा के लिये ही है । दृष्य एक तरह से द्रष्टा को उसके संस्कारों को प्रकट करता है ।
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