साधनपाद । सूत्र 22 - 25 ।

कृतार्थं प्रति नष्टम् अप्यनष्टं तदन्यसाधारणत्वात् ॥ २२ ॥ अपना अर्थ पूरा कर दृष्य नष्ट हो जाता है , परंतु अन्य साधारण दृष्टि अनष्ट रहते हैं । जैसा पिछ्ले सूत्र में कहा गया है , दृष्य द्र्ष्टा के लिये ही रहते हैं । जब इनका अर्थ सिद्ध हो जाता है , तो ये स्वयमेव समाप्त हो जाते हैं । अन्य साधारण द्रष्टाओं के लिये ये दृष्य वर्तमान रह सकते हैं । स्वस्वामिशक्त्योः स्वरूपोपलब्धिहेतुः संयोगः ॥ २३ ॥ स्वरुप की उपलब्धि का कारण स्व एवं स्वामी की शक्ति का संयोग है । यहाँ पर स्व का अर्थ प्रक़ृति से है । स्वामी का अर्थ पुरुष से है । पुरुष एवं प्रकृति के संयोग से स्वरुप की उपलब्धि होती है । संयोग से पुरुष एवं प्रकृति का अर्थ करना मुश्किल हो जाता है । इसी कारण से दृष्य द्रष्टा को दिखायी देते हैं । तस्य हेतुरविद्या ॥ २४ ॥ यह अविद्या के कारण है । अविद्या , जो एक प्रकार का क्लेश है , इस संयोग को उत्पन्न करता है । अविद्या के समाप्त हो जाने पर द्र्ष्टा के दृष्य समाप्त होने लगते हैं । तदभावात् संयोगाभावो हानं । तद्दृशेः कैवल्यम् ॥ २५ ॥ उसके अभाव से संयोग का भाव समाप्त हो जाता है । वही कैवल्य का देखना है । अविद्या के समाप्त हो जाने पर संयोग का भाव भी समाप्त होने लगता है । उस समय कैवल्य होता है । कैवल्य में प्रकृति पुरुष में स्थिर हो जाती है ।

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