समाधिपाद । सूत्र 31 - 35 ।
दुःखदौर्मनस्याङ्गमेजयत्वश्वासप्रश्वासा विक्षेपसहभुवः ॥ ३१ ॥
दुख, दौर्मनस्य, अंगमेजयत्व, श्वास एवं प्रश्वास – ये चित्तविक्षेप से अनुभूत होते हैं ।
विक्षेपों से इन भावों का अनुभव होता है – दुख – दुख से मन एवं शरीर में पीडा का अनुभव होता है । दुख के कारणानुसार तीन प्रकार हैं – आधिभौतिक , आध्यात्मिक एवं आधिदैविक । शरीर से उत्पन्न दुख आधिदैविक है । मन में काम, क्रोध, मद, मान एवं मोह से उत्पन्न होने वाला दुख आध्यात्मिक है । जो दुख भूकम्प , सर्दी , गर्मी इत्यादि से उत्पन्न हो वह आधिदैविक है । दौर्मनस्य – इच्छा की पूर्ति न होने पर जो क्षोभ की भावना उत्पन्न हो वह दौर्मनस्य है । अंगमेजयत्व – शरीर के अंगों में कम्पन होना अंगमेजयत्व है । यह शरीर में कमजोरी से होता है । यह स्नायुतंत्रॉं की कमजोरी से भी उत्पन्न होता है । श्वास – विक्षेपों से साँस अन्दर लेने में भी दिक्कत होती है । प्रश्वास – विक्षेपों से साँस छोड्ने में भी दिक्कत होती है ।
तत्प्रतिषेधार्थम् एकतत्त्वाभ्यासः ॥ ३२ ॥
उनके प्रतिषेध के लिये एकतत्व का अभ्यास करना चाहिये ।
विघ्नो को रोकने के लिये एकतत्व का अभ्यास करना चाहिये । एकतत्व से अर्थ अगले सूत्र में वर्णित समसुखदुखभाव से है ।
मैत्रीकरुणामुदितोपेक्षणां सुखदुःखपुण्यापुण्यविषयाणां भावनातश्चित्तप्रसादनम् ॥ ३३ ॥
सुख-दुख पुण्य-अपुण्य विषयों में मैत्री , करुणा , मुदिता एवं उपेक्षा की भावनाओं से चित्त शांत हो जाता है ।
इन्द्रियाँ हमेशा सुख-दुख पुण्य-अपुण्य जैसे द्वन्द्व भावों से जूझते रहती हैं । इन परिस्थितियों में भी मैत्री , करुणा , प्रसन्नता एवं समभाव रखने से इन द्वन्द्व भावों का चित्त पर प्रभाव नहीं पड्ता । इससे चित्त निर्मल एवं स्वच्छ हो जाता है ।
प्रच्छर्दनविधारणाभ्यां वा प्राणस्य ॥ ३४ ॥
अथवा प्राण को बाहर रोकने से भी ऐसा होता है ।
प्रच्छर्दन से अर्थ है श्वास को बाहर निकालना । बारबार श्वास को बाहर निकालकर रोकने से प्राण चित्त को निर्मल करता है । यहाँ पर पतंजलि श्वास एवं प्रश्वास के महत्व का वर्णन करते हैं । सुख-दुख इत्यादि द्वन्द्व भाव चित्त में वृत्तियों को उत्पन्न करते हैं । निय़ंत्रित श्वास-प्रश्वास के द्वारा प्राण नियंत्रित होने लगते हैं , और द्वन्द्व भावों का प्रभाव घटने लगता है ।
विषयवती वा प्रवृत्तिरुत्पन्ना मनसः स्थितिनिबन्धिनी ॥ ३५ ॥
अथवा विषयों से उत्पन्न होने वाली प्रवृत्तियों को स्थिर मन से बाँध देती है ।
विषयों के अनुभव से विभिन्न प्रकार की प्रवृत्तियाँ उत्पन्न होती हैं । स्थिर मन इन प्रवृत्तियों से चित्त को प्रभावित नहीं होने देता ।
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