समाधिपाद । सूत्र 36 - 40 ।
विशोका वा ज्योतिष्मती ॥ ३६ ॥
शोकरहित एवं ज्योतिपूर्ण भावों से भी होता है ।
ऐसे विचार जिनमें शोक का अभाव हो , उनसे भी चित्त निर्मल होता है । ज्योतिपूर्ण भाव , अर्थात वो विचार जो चित्त में अद्भुत ज्योति भर दें , उनसे भी निर्मलता आती है । इस सूत्र में अक्लिष्ट वृत्तियों के प्रभाव की बात की गयी है ।
वीतरागविषयं वा चित्तम् ॥ ३७ ॥
अथवा चित्त को राग एवं विषय से स्वतंत्र करने पर होता है ।
राग से अर्थ आसक्ति से है । आसक्ति से चित्त चंचल होता है । विषय से अर्थ इन्द्रियों से अनुभव करने वाले वो विचार हैं , जो काम , क्रोध , मद , लोभ एवं मोह उत्पन्न करते हैं । चित्त अगर वीतरागविषय हो , अर्थात राग और विषय के बिना हो तो , एकतत्व का अभ्यास होता है । इससे भी चित्त निर्मल एवं स्वच्छ होता है ।
स्वप्ननिद्राज्ञानालम्बनं वा ॥ ३८ ॥
स्वप्न एवं निद्रा के ज्ञान पर आधारित चित्त भी स्थिर होता है ।
स्वप्न एवं निद्रा में भी ज्ञान मिलता है । इसकी यहाँ विशेष चर्चा है क्योंकि निद्रावस्था में मन जागृत नहीं रहता । इसके फलस्वरुप , स्वप्न में व्यक्ति की अंतर्मन की बातें व्यक्त होती हैं । इनसे प्राप्त ज्ञान से भी चित्त स्थिर होने लगता है ।
यथाभिमतध्यानाद् वा ॥ ३९ ॥
जिसका जैसा अभिमत हो , उसके ध्यान से भी ( चित्त स्थिर हो जाता है ) |
जिसका जो अभिमत हो , अर्थात जो पसंद की वस्तु हो , उस पर भी ध्यान करने से चित्त स्थिर हो जाता है । ऐसा कहने का अर्थ है कि जिससे लगाव हो , अगर उस मत पर विचार किया जाये तो सही ज्ञान मिलता है । इस ज्ञान से भी चित्त स्थिर होने लगता है ।
परमाणु परममहत्त्वान्तोऽस्य वशीकारः ॥ ४० ॥
उसका परमाणु से लेकर परम महत्व तक वश में हो जाता है । जिसने उपर वर्णित सूत्रों के द्वारा चित्त्त को स्थिर कर लिया हो , और एकतत्व की प्राप्ति कर ली हो , वह अपने चित्त को न्यूनतम परमाणु से लेकर परम महत्व वाले तक किसी भी प्रकार के विचार पर स्थिर कर लेता है । ऐसे योगी का चित्त वश में हो गया है ।
Comments
Post a Comment