समाधिपाद । सूत्र 46 - 51 ।

ता एव सबीजः समाधिः ॥ ४६ ॥ ये सभी सबीज समाधि है । सवितर्क , निर्वितर्क , सविचार एवं निर्विचार – ये सारी समाधियाँ सबीज हैं । इनमें चित्त निर्मल एवं शुद्ध हो जाता है , परंतु इन सारी वृत्तियों में अभी भी ध्येय पदार्थ की चित्त वृत्तियाँ शेष रहती हैं । निर्विचारवैशारद्येऽध्यात्मप्रसादः ॥ ४७ ॥ निर्विचार की पवित्रता में अध्यात्म प्रसन्न होता है । निर्विचार समाधि में अध्यात्म ज्ञान उत्पन्न होने लगता है । ऋतंभरा तत्र प्रज्ञा ॥ ४८ ॥ तब प्रज्ञा ऋतंभरा हो जाती है । प्रज्ञा तब सत्य पर आधारित हो जाती है । अब प्रज्ञा को सही रुप दिखायी देने लगता है । श्रुतानुमानप्रज्ञाभ्याम् अन्यविषया विशेषार्थत्वात् ॥ ४९ ॥ इसमें विषयों का अर्थ श्रुत (सुने हुए ) , अनुमानित ( अनुमान किये हुए ) एवं प्रज्ञा से प्राप्त अनुभओं से अलग एवं विशेष होता है | ऋतंभरा में प्राप्त अनुभव विशेष एवं भिन्न होते हैं । यह सुने हुये , अनुमान किये हुये एवं साधारण अनुभवों से अलग होते हैं । तज्जः संस्कारोन्यसंस्कारप्रतिबन्धी ॥ ५० ॥ तब उत्प्न्न संस्कार अन्य संस्कारों को समाप्त कर देते हैं । इस समाधि में उत्पन्न होने वाले संस्कार अन्य संस्कारों को समाप्त कर देते हैं । तब कोई संस्कार शेष नहीं रह जाते एवं चित्तवृत्तियाँ पूर्णतः समाप्त होने लगती हैं । तस्यापि निरोधे सर्वनिरोधान् निर्बीजः समाधिः ॥ ५१ ॥ जब वह संस्कार भी समाप्त हो जाता है , सब संस्कार समाप्त हो जाते हैं , वह निर्बीज समाधि है । निर्बीज समाधि में सब संस्कार समाप्त हो जाते हैं । चित्तवृत्तियाँ पूर्णतः समाप्त हो जाती हैं । इति पतञ्जलिविरचिते योगसूत्रे प्रथमः समाधिपादः ।

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