साधनपाद । सूत्र 6 - 10 ।
दृग्दर्शनशक्त्योरेकात्मतेवास्मिता ॥ ६ ॥
अस्मिता दृग्दर्शन की शक्ति को एकात्मता के समान कर देता है ।
अस्मिता से अर्थ मन एवं अहंकार से है । यह व्यक्ति में आत्मता का भाव उत्पन्न करता है । इसमें मन में अहंकार पैदा होता है और व्यक्ति अपने आप को कर्ता समझने लगता है । यह भाव दृग्दर्शन को ढंक लेता है । दृग्दर्शन से अर्थ पुरूष के दर्शन से है । अस्मिता एक प्रकार का क्लेश है । इसमें व्यक्ति अपने देह से अतिशय प्रेम करने लगता है , और यह मोह उसे ईश्वर का सही रुप नहीं देखने देता ।
सुखानुशयी रागः ॥ ७ ॥
राग सुख का अनुशयी है ।
राग सुखी अनुभवों से पैदा होता है । जब किसी से सुख का अनुभव मिलता है , तो उस के प्रति मोह पैदा हो जाता है । अत्यधिक मोह से राग होता है , जो एक प्रकार का क्लिष्ट अनुभव है ।
दुःखानुशयी द्वेषः ॥ ८ ॥
द्वेष दुख का अनुशयी है ।
द्वेष दुखी अनुभवों से पैदा होता है । जब किसी से दुख का अनुभव मिलता है , तो उस के प्रति घृणा की भावना हो जाती है । इस से द्वेष होता है , जो एक प्रकार का क्लिष्ट अनुभव है ।
स्वरसवाही विदुषोऽपि तथारूढो भिनिवेशः ॥ ९ ॥
अभिनिवेश अपने रस में स्थिर होता है, और विद्वानो में भी आरुढ है ।
अभिनिवेश से अर्थ व्यक्तिगत लगाव से चिपटना है । ऐसा विद्वानो में भी होता है । ऐसा लगाव पुराने अनुभवों से उत्पन्न होता है । ये अनुभव संस्कार बनकर रहते हैं ।
ते प्रतिप्रसवहेयाः सूक्ष्माः ॥ १० ॥
सूक्ष्म रुप में उनकी उत्पत्ति समझने पर वो समाप्त हो जाती हैं ।
अभिनिवेश भाव का प्रसव अर्थात उत्पत्ति संस्कारों से होती है । पहले सूक्ष्म रुप से यह देखा जाना चाहिये कि ये विचार कहाँ से उत्पन्न हो रहे हैं । फिर उनकी उत्पत्ति के भाव को जड से निकाल देने पर अभिनिवेश संस्कार समाप्त हो जाते हैं ।
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