साधनपाद । सूत्र 26 - 30 ।

विवेकख्यातिरविप्लवा हानोपायः ॥ २६ ॥ अविप्लव विवेकख्याति इसको समाप्त करने के उपाय हैं । अविप्लव से यहाँ निरंतर का अर्थ बनता है । विवेक से सम्यक दृष्य देखने की क्षमता उत्पन्न होती है । विवेकख्याति का अर्थ है , देखने में विवेक का प्रयोग करना । अविप्लव विवेकख्याति से संयोग समाप्त होने लगता है , और पुरुष की कैवल्य में स्थिरता हो जाती है । तस्य सप्तधा प्रान्तभूमिः प्रज्ञा ॥ २७ ॥ प्रज्ञा की भूमि इन सात प्रकार के प्रांतों में है । प्रज्ञा विवेकपूर्ण बुद्धि है । जब विवेक उत्पन्न होने लगता है , तो बुद्धि मानसिक एवं शारीरिक भावों को सूक्ष्म तरीके से देखना शुरु कर देता है । यह प्रज्ञा है । प्रज्ञा सात प्रकार के प्रांतों में लागू होता है । इन सूत्रों में इसकी व्याख्या नहीं है । इसका अर्थ – मन , अहंकार एवं पाँच तन्मात्राओं – रुप , शब्द , रस , स्पर्श एवं राग – हो सकता है । प्रज्ञा इनको देखती है , एवं इनसे उत्पन्न होने वाले क्लिष्ट वृत्तियों को कम करती है , और अंततोगत्वा इनको समाप्त कर देती है । योगाङ्गानुष्ठानाद् अशुद्धिक्षये ज्ञानदीप्तिरा विवेकख्यातेः ॥ २८ ॥ योग के अंगों के अनुष्ठान से उपजी ज्ञान की दीप्ति विवेक और दीखता है । विवेक प्राप्त करने के लिये योगांगों का अनुष्ठान करना चाहिये । योगाभ्यास से ज्ञान जागृत होता है । इस ज्ञान से सूक्ष्म भाव और स्पष्ट दिखने लगते है । इससे विवेक भाव और पुष्ट होता है । अगले सूत्र में इन योगों के अंगों की व्यख्या की गयी है । यमनियमासनप्राणायामप्रत्याहारधारणाध्यानसमाधयोऽष्टाव अङ्गानि ॥ २९ ॥ यम , नियम , आसन , प्राणायम , प्रत्याहर , धारणा , ध्यान एवं समाधि – ये आठ अंग है । पतंजलि मुनि ने यहाँ योग के आठ अंगों का नाम लिया है । प्रत्येक अंग के कुछ महत्वपूर्ण प्रभाव हैं । नीचे इन्हीं का वर्णन है। (1) यम – अपने वाह्य वातावरण से कैसे व्यवहार किया जाये , यह उस प्रवृत्ति को नियंत्रित करता है । (2) नियम – अपने देह एवं मन को कैसा व्यवहार करना चाहिये , यह उसे नियंत्रित करता है । (3) आसन – आसन देह को एक मुद्रा में ले जाकर स्थिर रखना है । इससे देह , मन इत्यादि शांत एवं स्वस्थ होते हैं । (4) प्राणायाम – यह प्राणमय कोश को नियंत्रित करता है । प्राण को वायु से कैसे सम्भाला जाये , यह इसके अंतर्गत आता है । (5) धारणा – मन को किसी रुप पर स्थिर करना धारणा है । (6) ध्यान – ध्यान में ईश्वर की सत्ता का प्रत्यक्ष अनुभव होने लगता है । (7) समाधि – यह कैवल्य की अवस्था है । वेदादि ग्रंथों में पाँच कोशों की परिचर्चा है – अन्नमय कोश , प्राणमय कोश , मनोमय कोश , विज्ञानमय कोश एवं आनन्दमय कोश । मेरी दृष्टि में ये कोश देह , प्राण , मन , बुद्धि एवं चित्त के रुप में प्रक़ट होते हैं । देह स्थूलतम रुप है , एवं चित्त सूक्ष्मतम । योगी पतंजलि जब चित्त के वृत्तियों की समाप्ति की बात करते हैं , तो वह जब तक नहीं हो सकता , तब तक स्थूलतर सत्तायें भी अपने विकारों का नाश न करे । अष्टांग योग में प्रत्येक अंग हरेक कोशों को प्रभावित करता है , परंतु एक एक अंग का प्रभाव किसी विशेष कोश पर ज्यादा पडता है । यम , नियम एवं आसन अन्नमय कोश को सबसे ज्यादा विकारहीन बनाते हैं । प्राणायाम प्राणमय कोश के उपर सबसे ज्यादा प्रभाव डालता है । धारणा एवं ध्यान ज्यादा मनोमय एवं विज्ञानमय कोश से सम्बंधित हैं । समाधि का सीधा संबंध आनन्दमय कोश से है । अन्नमय एवं प्राणमय कोश स्थूलतम हैं , एवं वाह्यंतर भाव के भी हैं । प्रथम पाँच अंग अंतरंग भाव के साथ-साथ वाह्य वातावरण के व्यवहार को भी प्रभावित करते हैं । शेष तीन अंग – धारणा , ध्यान एवं समाधि मूलतः अंतरंग भावों से सम्बंधित हैं । अहिंसासत्यास्तेयब्रह्मचर्यापरिग्रहा यमाः ॥ ३० ॥ अहिंसा , सत्य , अस्तेय , ब्रह्मचर्य एवं अपरिग्रह – ये यम हैं । यम वाह्य व्यहवार को नियंत्रित करता है । (1) अहिंसा – मन , कर्म अथवा वचन के द्वारा पुण्यमय अस्तित्व को हानि नहीं पहुँचाना चाहिये । जीव हत्या हिंसा का प्रबल रुप है । अपने वचन के द्वारा अकारण दूसरों को दुख देना भी हिंसा है । (2) सत्य – प्रमाण , अनुमान एवं आगम से जो सत्य बनता है , उसी का अनुशरण करना चाहिये । (3) अस्तेय – अस्तेय का अर्थ है जो सम्पत्ति अपनी न हो , उसे न लेना । (4) अपरिग्रह – जितनी आवश्यकता हो , उतना ही अपने पास रखना चाहिये । (5) ब्रह्मचर्य – गृहस्थाश्रम से अलग संयम रखना ब्रह्मचर्य है ।

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