साधनपाद । सूत्र 31 - 35 ।
जातिदेशकालसमयानवच्छिन्नाः सार्वभौमा महाव्रतम् ॥ ३१ ॥
जाति , देश , काल एवं समय से परे ये सार्वभौम महाव्रत है ।
ये महाव्रत जन्म , स्थान , समय से परे हैं । ये हमेशा एवं हर जगह लागू होते हैं । अष्टांग योग सार्वभौम महाव्रत हैं ।
शौचसंतोषतपःस्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि नियमाः ॥ ३२ ॥
शौच , संतोष , तप , स्वाध्याय एवं ईश्वरप्रणिधान – ये नियम हैं ।
नियम अपने देह एवं मन को नियंत्रित करता है । इसके पाँच अंग हैं =
(1) शौच – स्वयं को शुद्ध एवं साफ रखना शौच है ।
(2) संतोष – जितनी संपत्ति और क्षमता है , उस में प्रसन्न रहना संतोष है ।
(3) तप – तप में शरीर एवं मन को अभ्यास से योगानुसार ढालते हैं ।
(4) स्वाध्याय – स्वाध्याय में आप्त वाक्यों का स्वयं अध्ययन करते हैं ।
(5) ईश्वर प्रणिधान – ईश्वर के प्रति आस्था रखते हुये प्राणों का अर्पण करना ईश्वर प्रणिधान है ।
वितर्कबाधने प्रतिपक्षभावनम् ॥ ३३ ॥
वितर्क भावों को प्रतिपक्ष भावों से रोका जा सकता है ।
वितर्क अर्थात क्लिष्ट पैदा करने वाले भावों को प्रतिपक्ष अर्थात विपरीत भावों से रोका जा सकता है । जैसे अगर घृणा की भावना हो , तो ऐसा सोचना चाहिये की प्रेम की भावना उत्पन्न होने लगे । ऐसा सोचना की अंततः ये वितर्क भाव दुख ही देते हैं , ये भी प्रतिपक्ष भाव है । वितर्क भावों से होनेवाले दुख के बारे में सोचने से भी प्रतिपक्ष भाव पैदा होते हैं ।
वितर्का हिंसादयः कृतकारितानुमोदिता लोभक्रोधमोहपूर्वका मृदुमध्याधिमात्रा दुःखाज्ञानानन्तफला इति प्रतिपक्षभावनम् ॥ ३४ ॥
हिंसा आदि वितर्क भाव , जो स्वयं , दूसरों से अथवा अनुमोदित करने से मृदु , मध्य अथवा अधिमात्रा में उत्पन्न होता है , दुख एवं अज्ञान रुपी अनंत फल देता है – यही प्रतिपक्ष भाव है ।
इस सूत्र में वितर्क भावों की व्याख्या की गयी है । ये वितर्क भाव पाँच यम के विपरीत भाव है – हिंसा , असत्य , स्तेय , परिग्रह एवं भोग । तीन प्रकार के कर्ता होते हैं – कृत अर्थात जो स्वयं करे , कारित अर्थात जो दूसरो से करवाये एवं अनुमोदित अर्थात जो इन भावों की अनुमोदना करे । ये भाव तीन प्रकार के हो सकते हैं – मृदु अर्थात कमजोर , मध्य , एवं अधिमात्रा अर्थात काफी तीव्र भाव । इस प्रकार इस सूत्र में पतंजलि मुनि ने 45 प्रकार के वितर्क भावों में भेद बतलाया है । ये सभी वितर्क भाव दुख एवं अज्ञान पैदा करते हैं ।
अहिंसाप्रतिष्ठायां तत्सन्निधौ वैरत्यागः ॥ ३५ ॥
अहिंसा में प्रतिष्ठित होने पर , उनके सान्निध्य में वैर का त्याग हो जाता है ।
जो व्यक्ति अहिंसा में प्रतिष्ठित हो गया हो , उसमें दूसरों को चोट पहुँचाने की भावना समाप्त हो जाती है । वह प्रेम परिपूर्ण होकर सारे जीव जंतुओं से प्रेम करने लगता है । फलस्वरुप जो भी उनके सन्निध्य में आते हैं , उनके भी वैर समाप्त होने लगते हैं ।
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