साधनपाद । सूत्र 36 - 40 ।
सत्यप्रतिष्ठायां क्रियाफलाश्रयत्वम् ॥ ३६ ॥
सत्य में प्रतिष्ठित होने पर क्रिया के फल का आश्रय हो जाता है ।
जो सत्य में प्रतिष्ठित है , वह कर्म और उससे होने वाले फल को सही देखना शुरु कर देते हैं । इससे कर्म के सही फल मिलना शुरू हो जाता है ।
अस्तेयप्रतिष्ठायां सर्वरत्नोपस्थानम् ॥ ३७ ॥
अस्तेय में प्रतिष्ठित होने पर सभी रत्न स्वयं उपस्थित हो जाते हैं ।
अस्तेय का अर्थ है – चोरी न करना । जो सम्पत्ति अपनी अर्जित न हो , उसे अपना कर लेना अस्तेय है । अस्तेय में प्रतिष्ठित होने पर दूसरों का विश्वास बढने लगता है । इससे उस व्यक्ति के पास सारी आवश्यकता की चीजें स्वयं उपलब्ध होने लगते हैं ।
ब्रह्मचर्यप्रतिष्ठायां वीर्यलाभः ॥ ३८ ॥
ब्रह्मचर्य में प्रतिष्ठित होने पर वीर्य का लाभ होता है ।
ब्रह्मचर्य में प्रतिष्ठित होने पर शक्ति बढ्ने लगती है । ब्रह्मचर्य में लैंगिक संबंधों में संयंम की अत्यावश्यकता है । वीर्य से शक्ति बढती है , और संयंम से मानसिक एवं शारीरिक शक्ति का विकास होता है ।
अपरिग्रहस्थैर्ये जन्मकथंतासंबोधः ॥ ३९ ॥
अपरिग्रह की स्थिति हो जाने पर जन्म के कारण का संबोध हो जाता है ।
अपरिग्रह का अर्थ है – अनावश्यक वस्तुओं को इकट्ठा न करना । जो आवश्यक हो , उनका ही उपयोग करना । इस प्रकार जब अनावश्यक वस्तुओं से लगाव कम हो जाता है तो जन्म के सही कारण का संबोध होने लगता है ।
शौचात् स्वाङ्गजुगुप्सा परैरसंसर्गः ॥ ४० ॥
शौच से अपने अंग से वैराग्य एवं दूसरों से संसर्ग न करने की भावना होती है ।
शौच से यह पता चलता है कि अपना शरीर मल-मूत्र से भरा हुआ है । इसको हमेशा साफ रखने की आवश्यकता रहती है । यह जानकर कि य देह मलिन है , अपने अंगों से वैराग्य होने लगता है । दूसरो के अंगों से भी संसंर्ग करने की भावना समाप्त होने लगती है ।
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