साधनपाद । सूत्र 51 - 55 ।

बाह्याभ्यन्तरविषयाक्षेपी चतुर्थः ॥ ५१ ॥ 

वाह्य एवं अंदर के विषयों का त्याग करने वाला चतुर्थ प्रकार है । 

श्वास में वाह्य एवं अभ्यंतर का भेद होता है । पिछले दो सूत्रों में श्वास में वाह्य , अभ्यंतर एवं स्तंभ की महत्ता बतायी गयी है । इन सूत्रों में श्वास के इन विभिन्न प्रक्रियाओं पर जोर देकर प्राणायाम के विभिन्न आयामों का वर्णन है । अब यदि यह श्वास प्रक्रिया इतनी सहज हो कि वाह्याभ्यंतर में किसी विषय का आभास न हो , वह चतुर्थ प्रकार का प्राणायाम है । इस प्रक्रिया में श्वास लेने एवं छोडने पर मन में विषयों का आभास नहीं होता । 

ततः क्षीयते प्रकाशावरणम् ॥ ५२ ॥ 

तब प्रकाश के उपर का आवरण क्षीण हो जाता है । 

तत्पश्चात , प्रकाश अर्थात अंतर्मन का सही रुप , के उपर से चादर हट जाती है । जैसे बादल सूर्य को आच्छादित कर , प्रकाश को रोक देते हैं , वैसे ही वृत्तियाँ पुरूष के सही रुप को ढक कर रखती है । पतंज़लि मुनि के अनुसार सहज प्राणायाम को प्राप्त कर लेने पर , वृत्तियाँ क्षीण होने लगती हैं एवं पुरूष रुपी प्रकाश का आभास होने लगता है ।

धारणासु च योग्यता मनसः ॥ ५३ ॥ 

और धारणा में मन की योग्यता हो जाती है । 

अब योगी को एक जगह मन लगाने की योग्यता आ जाती है ।

स्वस्वविषयासंप्रयोगे चित्तस्य स्वरूपानुकार इवेन्द्रियाणां प्रत्याहारः ॥ ५४ ॥

अपने विषयों के असम्प्रयोग से चित्त के स्वरुप के अनुरुप इन्द्रियों का हो जाना प्रत्याहार है । असम्प्रयोग का अर्थ है , अलग करना । इन्द्रियाँ विषयों से जुडी रहती हैं , जिसके फलस्वरुप चित्त का सही आभास नहीं हो पाता है । प्राणायाम से विषय एवं मन के अनुभव अलग होने लगते हैं , तत्पश्चात अंतर्मन बाहरी वस्तुओं एवं अनुभवों से विरक्त होने लगता है । तब इन्द्रियाँ चित्त में विकार पैदा करने की बजाय , चित्त के अनुरुप अनुभव करने लगती है । परम पुरूष का अनुभव होने लगता है । 

ततः परमा वश्यतेन्द्रियाणाम् ॥ ५५ ॥

उससे इन्द्रियों की परम वश्यता हो जाती है । एक बार इन्द्रियाँ के अंतर्मन में स्थिर हो जाने पर वाह्य विषय इसे प्रभावित नहीं करते । योगी का इन्द्रियों पर पूर्ण वश हो जाता है । इति पतञ्जलिविरचिते योगसूत्रे द्वितीयः साधनपादः । यह पतंजलि विरचित योगसूत्र के द्वितीय साधनपाद है ।

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