साधनपाद । सूत्र 41 - 45 ।
सत्त्वशुद्धिसौमनस्यैकाग्र्येन्द्रियजयात्मदर्शनयोग्यत्वानि च ॥ ४१ ॥ इसके अलावा , सत्त्व , शुद्धि , सौमनस्य , एकाग्रता , इन्द्रियों पर विजय एवं आत्मदर्शन की योग्यता भी आती है । शौच से और भी कई योग्यताओं की प्राप्ति होती है । इससे सत्व अर्थात सत्यभाव उत्पन्न होने लगता है । शुद्धि से तात्पर्य शुद्ध अर्थात साफ अस्तित्व से है । सौमनस्य में विपरीत परिस्थितियों में भी शांत भाव बना रहता है । एकाग्र होने से जिस कर्म का सम्पादन हो रहा हो , सिर्फ उसी पर मन लगा रहता है । अपने अंगों से वैराग्य उत्पन्न हो जाने पर इन्द्रियाँ देह को प्रभावित करने में असफल हो जाती हैं, और अंततः इन्द्रियों पर पूर्ण विजय प्राप्त हो जाता है । इससे चित्त शांत होने लगता है , और आत्मदर्शन की योग्यता आती है । संतोषाद् अनुत्तमः सुखलाभः ॥ ४२ ॥ संतोष से अत्युत्तम सुख का लाभ होता है । संतोष से जितना हो , उसी में सुखपूर्वक रहने की इच्छा होती है । और विषयों पर मन नहीं भागता , और इससे अनुत्तम सुख का लाभ होता है । कायेन्द्रियसिद्धिरशुद्धिक्षयात् तपसः ॥ ४३ ॥ तप से अशुद्धि कम होता है , जिससे देह...