समाधिपाद । सूत्र 26 - 30 ।
स पूर्वेषाम् अपि गुरुः कालेनानवच्छेदात् ॥ २६ ॥ काल से भी अनवच्छेदित , वह पूर्वजों का भी गुरू है । ईश्वर काल से परे है । जब काल अर्थात समय भी नहीं था , उस समय भी ईश्वर की सत्ता व्याप्त थी । वह प्रथम गुरू है । पूर्वजों को भी उसने प्रथम शिक्षा दी थी । ईश्वर अनादि है , वह अमर है । तस्य वाचकः प्रणवः ॥ २७ ॥ प्रणव अर्थात ॐ उसका वाचक है । यहां वाचक का अर्थ उस शब्द से है , जो ईश्वर की बात करता हो । ॐ ईश्वर का नाम है । यह ध्वनि में ईश्वर का मूर्त रुप है । तज्जपस्तदर्थभावनम् ॥ २८ ॥ उसके अर्थ के भाव के साथ उसका जप करो । योगी को प्रणव का जप करना चाहिये । और उसके साथ उसके अर्थ के भाव का भी स्मरण करना चाहिये । इसी को प्रारम्भ में ईश्वर प्रणिधान भी कहा गया । प्रणव के जाप एवं स्मरण से ईश्वर के प्रति भक्ति एवं समर्पण बढता है । ततः प्रत्यक्चेतनाधिगमोऽप्यन्तरायाभावश्च ॥ २९ ॥ उससे अंतरात्मा की चेतना का ज्ञान एवं विघ्नों का अभाव अर्थात अंत हो जाता है । ईश्वर प्रणिधान से अन्दर की चेतना जागृत हो जाती है । उपर के सूत्रों में कुछ उपायों का वर्णन है , जिससे चेतना जागृत हो जाती है । खास कर के , प्रणव के...